बुधवार, 2 दिसंबर 2009

मतलब कल की छुट्टी

प्रदेश के लोकप्रिय और जन हितैषी राज्यपाल का पद पर रहते हुए निधन हो गया, यह सबके लिए दुज्ख की बात थी, लेकिन संवेदनाएं किस कदर मर चुकी हैं, इसकी बानगी सरकारी दतरों में खूब देखने को मिली। जैसे ही राज्यपाल के निधन का समाचार सरकारी कर्मचारियों को मिला उनके मुा से तो केवल यही निकला कि मतलब कल की छुट्टी हो गई, चलो मजा आ गया। अब लोगों को प्रदेश के प्रथम नागरिक के निधन पर मजा आ रहा है तो यह सोचने की बात है कि दुघüटनाओं और अन्य कारणों से होने वाली आमजन की मौत के उनके लिए क्या मायने हैं। लोग किसी की मौत में भी मस्ती का मौका ढूंढने लगे हैं। ऐसा मैंने सिर्फ राज्यपाल के निधन पर ही नहीं देखा सुना है, अक्सर सरकारी कर्मचारियों के मुा से किसी बड़े व्यçक्त की मौत पर सबसे पहले यही शब्द निकलते हैं कि उसे तो मरना ही था यह बताओ कल की छुट्टी हुई या नहीं। आखिर हमारी संवेदनाएं इतनी क्षीण क्यों हो चली हैं?

शुक्रवार, 12 जून 2009

किस लाइन में आ गए

जिंदगी में संतुष्टि शायद गायब हो चुकी है। कहीं भी चले जाएं यह शब्द अब जीवन में दूर-दूर तक नजर नहीं आता। किसी भी ऑफिस या कार्यस्थल पर सिर्फ यही सुनने को मिलता है कि किस लाइन में आ गए। इससे तो किसी और लाइन में चले जाते तो अच्छा था। हर जगह हर आदमी उसी काम को कोसता नजर आता है, जिसके बलबूते पर वह अपनी रोजी-रोटी चला रहा है, अपने परिवार का पेट पाल रहा है। आखिर हमारी सोच इतनी संकीर्ण क्यों हो चली है कि हम जिस सहारे पर टिके हैं, हर पल उसी की बुराई करते हैं। यह स्थिति वैसे ही है, जैसे आज के बच्चे अपने मां-बाप को यह कोसते नजर आते हैं, कि उन्होंने उनके लिए किया ही क्या है, जबकि अब तक जो कुछ उन्होंने पाया, वह उन्हीं मां-बाप का दिया हुआ है। जिस तरह मां-बाप भगवान का रुप हैं, क्या हमारा काम जो हमें दो जून की रोटी देता है, वह भगवान नहीं हैं, क्या हमें उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए, लेकिन हम दिन भर उसी को कोसते हैं। शायद यही वजह है कि हम आज तक खुश नहीं हो पाए। हमें हर उपलब्धि छोटी नजर आती है और हमारी यही आदत हमें अपनी ही नजरों में हीन बना देती है और इस हीन भावना से बाहर निकलने के लिए हम हर समझौता करने को तैयार हो जाते हैं और यहीं से अपराधों के रास्ते खुलते हैं, भ्रष्टाचार पनपता है और शायद फिर हम वह भी नहीं रहते, जो हम थे या हो सकते थे। आज सभी अपराधों की जड. में यही कारण नजर आता है, इसलिए जीवन की असली जीत शायद यही है कि हम पहले उसका सम्मान करना सीख लें, जो हमारे पास है।

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

दो मिनट का समान फिर...

एक बूढ़ी अमा आती है। करीब हजार लोगों के बीच एक मिनट की शौर्य गाथा सुनाई जाती है, एक प्रशस्ति पत्र और छोटासा मैडल दिया जाता है। बस यही दो मिनट का समान, उस महान सपूत के लिए जो अपनी आखिरी सांस तक इस देश के लिए लड़ता रहा। उसके घर परिवार से यहीं खत्म हो जाता है, सरकार और जनप्रतिनिधियों व अन्य लोगों का नाता। जवान पत्नी और बच्चे, एक बूढ़ी अमा कैसे जिंदगी का लंबा सफर तय करेंगे, इसकी परवाह कोई नहीं करता और फिर बड़े शान से कहा जाता है आर्मी अतिसमाननीय पेशा है। युवाओं को इसमें जरूर आना चाहिए, लेकिन असलियत में तो समान सिर्फ दो मिनट का है। गुरुवार शाम को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील देश के नौजवानों और मरणोपरांत उनके परिजनों को शौर्य और कीर्ति चक्र प्रदान कर रही थीं, दूरदर्शन पर इस कार्यक्रम का प्रसारण देख रहा था। यह समान लेने के लिए कुछ जवानों की पçत्नयां और बूढ़ी मां आईZ तो यह प्रश्न बार-बार मन में उठ रहा था कि बेटे ने नाम तो कर दिया, लेकिन पत्नी और बच्चों की जिंदगी का इतना लंबा सफर कैसे तय होगा। हो सकता है कई जवानों के घर संपन्न हो, लेकिन बात पैसे की नहीं बात उस समान की भी है, जो उस जवान की पत्नी को शायद अब नहीं मिले। बच्चों को एक पिता का प्यार और अच्छी परवरिश नहीं मिलेगी। एक बूढ़ी मां बेटे की शहादत का दर्द जीने तक कैसे सहेगी। कुछ ही दिनों पहले मेरे जयपुर से भी एक महान सपूत मेजर भानुप्रताप सिंह आतंककारियों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे, अखबार में काम करने के कारण उनके परिजनों के विलाप के वे सभी फोटो मैंने देखे जो किसी भी पत्थर दिल को भी पिघला दे, लेकिन दुज्ख होता है कि हमारे देश के नेताओं का दिल पत्थर से भी कठोर है। भानु की शहादत पर सहानुभूति प्रकट करने कई नेता पहुंचे थे, लेकिन आज भानु की पत्नी और बच्चे, मां और पिता कैसे हैं, ये किसी को खबर नहीं। अब आर्मी की ओर युवाओं का रुझान बढ़े तो कैसे?

बुधवार, 18 मार्च 2009

ये प्यार कैसा होता है


ऑफिस से फ्री होने के बाद रात दो बजे चाय पीने का प्रोग्राम हम बहुत कम ही मिस करते हैं। चाय पीने का शौक हम हम दो-चार लोगों को ऐसा पड़ चुका है कि अब जिस दिन चाय नहीं पियें और थोड़ी गपशप नहीं करें ऐसा लगता है जैसै ऑफिस की छुट्टी हो। कल चाय पीते-पीते प्यार का किस्सा शुरू हो गया, पर अंत तक यह नहीं समझ पाए कि आखिर सच्चा प्यार किसे कहा जाए। सब अपने-अपने बारे में बता रहे थे। एक भाईसाहब का कहना था कि मुझे पहला प्यार महज चार वर्ष की उम्र में हुआ, जब मैं पहली कक्षा में पढ़ता था और उसके बाद जिंदगी में जितनी भी लड़कियां आईZ, ऐसा लगा मैनें सबसे सच्चा प्यार किया। उन्हें अपने एक प्यार पर थोड़ी ग्लानि भी थी, लेकिन सबकी राय थी कि प्यार में ऐसा हो ही जाता है। इन महाशय को जब चार वर्ष की उम्र में ही प्यार का अहसास हो गया तो लोग ये क्यों कहते हैं कि शुरुआती प्यार सिर्फ आकर्षकण होता है, क्योंकि बचपन में तो कोई आकर्षण भी नहीं होता, बचपन तो बहुत भोला होता है। जो होता है सब सामने होता, न कोई छल न कपट। चलो यहां से आगे बढ़े तो दूसरे भाईसाहब की प्रेम कहानी शुरू हुई, उन्होंने बताया कि उन्हें भी जीवन में दो चार बार प्रेम हो ही गया, आखिरी के दो बार का प्रेम उनकी जिंदगी में बहुत छोड़ गया। बिछोह से लेकर प्यार का अत्यंत मीठा अहसास इन दोनों बार के प्यार में उन्हें हुआ, लेकिन प्यार मंजिल तक नहीं पहुंचा, कारण चाहे जो भी रहा हो। उनका कहना यही था कि जीवन में सबको दो-चार बार प्यार हो ही जाता है। सो उन्हें भी हो गया, लेकिन प्यार ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया, पढ़ने को शौक था, लेकिन लिखने का यहीं से शुरू हुआ। एक भाईसाहब ने बताया कि उन्हें जीवन में प्यार करने का टाइम ही नहीं मिला, घर गृहस्थी में रहते-रहते कब 40 पार हो गए, पता ही नहीं चला, लेकिन सबकी बातों में एक बात साफ थी कि कौनसा प्यार सच्चा है, कौनसा झूठा, कौनसा मंजिल तक पहुंचेगा और कौनसा नहीं यह किसी को पता नहीं था, सब बस प्यार किए जा रहे थे। सबके प्यार में स्वार्थ होते हुए भी निस्वार्थ भाव था, लेकिन शायद इन सबके प्यार में सच्चा प्यार कोई था तो पहले भाईसाहब का जो बचपन में हुआ और उन्हें आज 25 बसंत बाद भी याद है और दूसरा प्यार वो जो हम सबका चाय से है और शायद आखिरी सांस तक रहे।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

हर जगह इमोशनल अत्याचार

सालभर बाद पिछले शनिवार को मैं हॉल में मूवी देखने गया। मूड कम ही था, लेकिन दोस्त जिद कर रहा था, इसलिए चला गया। मूवी लगी थी देव डी। पिक्चर का टाइटल और खाली टिकट विंडो देखकर चिंतित था कि कहीं पिक्चर के पैस भी वसूल होंगे याह नहीं। मूवी अच्छी थी, लेकिन मूवी का एक गाना `तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार तेरा इमोशनल अत्याचार´ कुछ ज्यादा ही अच्छा था। ज्यादा अच्छा इसलिए क्योंकि इसकी पहली पंक्ति के आखिरी दो शब्द `इमोशनल अत्याचार´ मुझे बार-बार झकझोर रहे थे। ये दो शब्द आजकल हर जगह दिख जाते हैं। पूरी दुनिय।में इमोशनल अत्याचार समान रूप से है। विश्व में छाई आर्थिक मंदी में भी यह विशेष किस्म का अत्याचार साफ नजर आता है। सभी देशों की सरकारें आर्थिक पैकेज का इमोशन दे रही है और पçब्लक अभी भी इस इमोशन में फंसकर अत्याचार का शिकार हो रही है। बड़ी-बड़ी कंपनियां भी इससे अछूती नहीं है। कई कंपनियों ने करीब छह माह पहले बड़े इंक्रीमेंट का इमोशनल संबल दिया था, लेकिन अब नौकरियों में कटौती और इंक्रीमेंट तो दूर तन्ख्वाह में भी कटौती कर इमोशनल अत्याचार कर दिया है। उधर भारत-पाक संबंधों में भी यही अत्याचार नजर आ रहा है। पाकिस्तान अत्याचार कर रहा है और भारत के नेता हर बार जनता को इमोशनल ब्लैक मेल कर रहे हैं कि हम आतंक का मुहं तोड़ जवाब देंगे। 14 फरवरी भी नजदीक ही है और वेलेंटाइन डे पर भी यही विशेष किस्म का अत्याचार होगा। कितनों के इमोशन से खिलवाड़ होगा। अंदाजा लगाना मुश्किल है। कहीं लड़कियां यह अत्याचार करेंगी तो कहीं लड़के। खैर जो भी हो अब इमोशनल अत्याचार की जड़ें विश्वव्यापी हो चुकी हैं और इससे कोई नहीं बचा है। मैं भी नहीं।

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

नई उमंग नई खुशियों के संग



बफीüली रातों की एक हवा जागी


और बर्फ की चादर ओढ़


सुबह के दरवाजे पर दस्तक दी उसने


उनींदी आखों से सुबह की अंगड़ाई में


भीगी जमीन ज्यों


फूटा एक नया कोपल


नए जीवन और नई उमंग नई खुशियों के संग


दफना कर कई काली रातों को


çझलमिलाते किरनों में भीगता


नई आशाओं की छाव में


सपनों का संसार बसाने


बफीüली रात की अंगड़ाई के साथ


बसंत के आने की उम्मीद लिए


आज सब पीछे रह छोड़ चला


वो अपनाने नए आकाश को


नए सुबह की नई धूप में


नई आशाओं की किरन के संग


आज फिर आया है नया साल


पीछे छोड़ जाने को परछाइयां


(साभार मानोशी चटर्जी)


सभी ब्लोगर बंधुओं, दोस्तों और प्रियजनों को नए साल की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

जिंदगी की यही रीत है

जिंदगी के हर मोड़ पर विरोधाभास है। हमारे पैदा होने से लेकर मरने तक हमें इन्हीं विरोधाभासों के बीच जीना होता है। जो हम चाहते हैं वो हमे मिलता नहीं। जिसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं वो आसानी से मिल जाता है। जैसे-जैसे कुछ मिलता जाता है। वैसे-वैसे कुछ छूटता जाता है। मुझे याद है मैं पांचवी कक्षा में पढ़ता था। घर वाले चाहते थे। मैं पढ़ लिखकर अफसर बनूं, इसलिए नवोदय स्कूल की परीक्षा दिलाई। मैं जैसे-तैसे मेहनत करके जिले के 40 उन बच्चों में शामिल हो गया, जिनका चयन हर साल इस स्कूल के लिए किया जाता है। बस यहीं से अपनों से दूर होने का सिलसिला शुरू हो गया। इसके बाद खुद को संवारने के लिए जैसे-जैसे आगे बढ़ा बहुत कुछ पीछे छूटता गया। कभी दोस्तों से दूरी बनी तो कभी भाई बहन, दादा-दादी और सभी घर वालों से। जब मैं पहली बार नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गया तो उसी दिन बाबा की तबीयत अचानकर खराब हुई, उन्हें अस्पताल में भतीü करवाना पड़ा। जब सलेक्शन हो गया और ऑफिस से कॉल आया तो पता चला बाबा कोमा में चले गए और बिना बोले ही इस दुनिया से चले गए। मैं उन्हें यह भी नहीं बता सका कि मैरी नौकरी लग गई है। मेरी ख्वाहिश अधूरी ही रही कि पहली तन्ख्वाह से उनके लिए कुछ ला पाता। जिंदगी का विरोधभास यहां भी खत्म नहीं हुआ। जब पहला प्रमोशन मिला तो उसके ठीक दो दिन बाद मेरी एक अजीज दोस्त से दूरियां बन गई, करीब डेढ़ साल हो गया, उसके बाद आज तक उससे बात भी नहीं हो सकी। उसके साथ बिताए वो दिन आज भी रुला देते हैं। इसके बाद जब दूसरा प्रमोशन मिला तो उस दिन दादी की तबीयत ख्ाराब हो गई और उसे अस्पताल में भतीü करवाने गया। 20 दिन तक अस्पताल में ही ऊपर नीचे चक्कर काटते-काटते गुजरे। अब डर लगता है कि भगवान समृद्धि और खुशी तो दे लेकिन ऐसी नहीं कि जिनके लिए समृद्धि चाहिए वो ही साथ नहीं रहे। ऐसा शायद सबके साथ होता है, लेकिन क्यों होता है किसी को पता नहीं। अगर कोई इस राज को जान पाए तो मुÛो जरूर बतलाए।

गुरुवार, 26 जून 2008

बापू को तो बख्शो

किसी लेखक ने लिखा है कि किसी व्यक्ति का चरित्र पूरी तरह जाने बिना उसे कुत्ते जैसी गाली देना कुत्ते की बेइज्जती करना है। ऐसा ही ख्याल अमेरिका के एक प्रतिçष्ठत अखबार ने भी नहीं रखा और हाल ही में ऐसी महान आत्मा जिसे न केवल भारत के एकअरब से ज्यादा लोग बल्कि विदेशी भी महात्मा और बापू जैसे अति सम्मानीय शब्द से संबोधित करते हैं, उनकी तुलना करोड़ो लोगों की जेब काट कर धनकुबेर बने इंसान से कर दी। देश के सभी प्रतिçष्ठत अखबारों में खबर भी छपी कि मुकेश अंबानी का जीवन दर्शन महात्मा गांधी के जैसा है। जिसने भी यह तुलना की या तो वो गांधीजी के बारे में थोड़ा बहुत भी नहीं जानता या फिर सिर्फ लिखने और कमाने के लिए ही उसने ऐसा किया। उसे यह भी पता नहीं था कि गांधीजी का पूरा नाम मोहनदास कर्मचंद गांधी है, लेकिन जनता उन्हें महात्मा गांधी या बापू नाम से ही संबोधित करती है। जिसे करोड़ों लोग महात्मा या बापू स्वीकार करें उसकी तुलना किसी धनकुबेर से की जाए, यह उस महान आत्मा की बेइज्जती से ज्यादा कुछ नहीं। तुलना का भी कोई तो आधार होना चाहिए। बापू ने हमेशा स्वदेशी और स्वराज्य पर जोर दिया पर कोई जाकर तो देखे अंबानी बंधु के घर में इस्तेमाल होने वाली चीजों में से कितनी भारतीय है। बापू ने लघु उद्योगों को बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन अंबानी बंधु ने तो रिलायंस फ्रेश जैसा प्रोजेक्ट लाकर गलियों की छोटी-छोटी दुकानों और ठेले थड़ी वालों की भी रोजी रोटी छीन ली। बापू ने सब कुछ त्यागने का लक्ष्य रखा और अंबानी बंधु हमेशा सबसे ज्यादा धनी बनने की फिराक में लगे रहते हैं। कहा जाता है कि महावीर के बाद अहिंसा का पूजने वाला अगर कोई शख्स था तो वे थे सिर्फ महात्मा गांधी। जिन्होंने अहिंसा के दम देश को आजादी दिलाई, लेकिन आज अगर मुकेश अंबानी को कोई छोटी सी गाली दे दे तो शायद वे पूरी फोर्स बुला लें और प्रशासन भी इसमें पूरा सहयोग करे। गांधी जी सत्य के पुजारी थे, इसलिए वे हमेशा राजनीतिक पद से दूर रहे, क्योंकि राजनीति और व्यापार झूठ के बिना आगे नहीं बढ़ते, फिर अंबानी बंधु तो देश के सबसे बडे़ व्यापारी हैं, इसलिए कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्हें बात-बात में झूठ बोलना पड़ता होगा। अगर मुकेश का चरित्र वाकई गांधीजी जैसा होता तो वे एक बार इस तुलना का विरोध करते और बापू के प्रति सम्मान का भाव प्रकट करते, क्योंकि यही एक महान व्यक्तित्व की पहचान होती है। हैरत की बात यह भी है कि किसी अखबार ने भी इस लेख का विरोध नहीं किया, शायद यही सोचकर कि अंबानी गु्रप से उन्हें करोड़ों के विज्ञापन मिलते हैं। याद रखें अंबानी बंधु शिखर से गिर कर तो आदमी खड़ा हो सकता है, लेकिन नजरों से गिर कर नहीं, इसलिए ऐसी तुलना से बचने की कोशिश करें।

गुरुवार, 29 मई 2008

नमन मेरा स्वीकार करें

ब्लॉग जगत के सभी साथियों को मेरा वंदन-अभिनंदन। मेरी मनोभावनाएं भी अब आपको सुलभ हो सकेंगी। आवश्यक मागॅदशॅन कर प्रोत्साहित करते रहेंगे सभी, इसी आशा के साथ - तरुण जैन।